57.
इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना जीवन अब शून्य-सा जान पड़ता था। आदमियों की सूरत से अरुचि थी, अगर कोई सान्त्वना देने के लिए भी जाता, तो मुँह फेर लेते। केवल प्रेमशंकर ही एक ऐसे प्राणी थे जिनका आना उन्हें नागवार न मालूम पड़ता था। इसलिए कि वह समवेदना का एक शब्द भी मुँह से न निकालते। सच्ची संवेदना मौन हुआ करती है।
एक दिन प्रेमशंकर आ कर बैठे, तो लालाजी को कपड़े पहनते देखा, द्वार पर एक्का भी खड़ा था जैसे कहीं जाने की तैयारी हो। पूछा, कहीं जाने का इरादा है क्या?
प्रभाशंकर ने दीवार की ओर मुँह फेर कर कहा– हाँ, जाता हूँ उसी निर्दयी दयाशंकर के पास, उसी की चिरौरी-विनती करके घर लाऊँगा। कोई यहाँ रहने वाला भी तो चाहिए। मुझसे गृहस्थी का बोझ नहीं सँभाला जाता! कमर टूट गयी, बलहीन हो गया। प्रतिज्ञा भी तो की थी कि जीते जी उसका मुँह न देखूँगा, लेकिन परमात्मा को मेरी प्रतिज्ञा निबाहनी मन्जूर न थी, उसके पैरों पर गिरना पड़ा। वंश का अन्त हुआ जाता है। कोई नामलेवा तो रहे, मरने के बाद चुल्लू भर पानी को तो न रोना पड़े। मेरे बाद दीपक तो न बुझ जाय। अब दयाशंकर के सिवाय और दूसरा कौन है, उसी से अनुनय-विनय करूँगा, मनाऊँगा, आकर घर आबाद करे। लड़कों के बिना घर भूतों का डेरा हो रहा है। दोनों लड़कियाँ ससुराल ही चली गयीं, दोनों लड़के भैरव की भेंट हुए; अब किसको देखकर जी को समझाऊँ? मैं तो चाहे कलेजे पर पत्थर की सिल रखकर बैठ भी रहता, पर तुम्हारी चाची को कैसे समझाऊँ? आज दो हफ्ते से ऊपर हुए उन्होंने दाने की ओर ताका तक नहीं। रात-दिन रोया करती हैं। बेटा, सच पूछो तो मैं ही दोनों लड़कों का घातक हूँ। वे जैसे चाहते थे, जहाँ चाहते थे। मैंने उन्हें कभी अच्छे रास्ते पर लगाने की चेष्टा न की। सन्तान का पालन कैसे करना चाहिए इसकी कभी मैंने चिन्ता न की!
प्रेमशंकर ने करुणार्द्र होकर कहा– एक्के का सफर है, आपको कष्ट होगा। कहिए तो मैं चला जाऊँ, कल तक आ जाऊँगा।
प्रभा– वह यों न आयेगा, उसे खींचकर लाना होगा। वह कठोर नहीं केवल लज्जा के मारे नहीं आता। वहाँ पड़ा रोता होगा। भाइयों को बहुत प्यार करता था।
प्रेम– मैं उन्हें जबरदस्ती खींच लाऊँगा।
प्रभाशंकर राजी हो गये। प्रेमशंकर उसी दम चल खड़े हुए। थाना यहाँ से बारह मील पर था। नौ बजते-बजते पहुँच गये। थाने में सन्नाटा था। केवल मुंशी जी फर्श पर बैठे लिख रहे थे। प्रेमशंकर ने उनसे कहा– आपको तकलीफ तो होगी, पर जरा दारोगाजी को इत्तला कर दीजिये कि एक आदमी आप से मिलने आया है। मुंशीजी ने प्रेमशंकर को सिर से पाँव तक देखा, तब लपककर उठे, उनके लिए एक कुर्सी निकाल कर रख दी और पूछा– जनाब का नाम बाबू प्रेमशंकर तो नहीं है?
प्रेमशंकर– जी हाँ, मेरा ही नाम है।
मुंशी– आप खूब आये। दारोगाजी अभी आपका ही जिक्र कर रहे थे। आपका अकसर जिक्र किया करते हैं। चलिए, मैं आपके साथ चलता हूँ। कान्सटेबिल सब उन्हीं की खिदमत में हाजिर हैं। कई दिन से बहुत बीमार हैं।
प्रेम– बीमार हैं? क्या शिकायत है?
मुंशी– जाहिर में तो बुखार है, पर अन्दर का हाल कौन जाने? हालत बहुत बदतर हो रही है। जिस दिन से दोनों छोटे भाइयों की बेवक्त मौत की खबर सुनी उसी दिन से बुखार आया। उस दिन से फिर थाने नहीं आये। घर से बाहर निकलने की नौबत न आयी। पहले भी थाने में बहुत कम आते थे, नशे में डूबे पड़े रहते थे, ज्यादा नहीं तो तीन-चार बोतल रोजाना जरूर पी जाते होंगे लेकिन इन पन्द्रह दिनों से एक घूँट भी नहीं पी। खाने की तरफ ताकते ही नहीं। या तो बुखार में बेहोश पड़े रहते हैं या तबियत जरा हल्की हुई तो रोया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि फाजिल गिर गयी है, करवट तक नहीं बदल सकते। डॉक्टरों का ताँता लगा हुआ है, मगर कोई परदा नहीं होता। सुना आप कुछ हिम्मत करते हैं। देखिए शायद आपकी दवा कारगर हो जाय। बड़ा अनमोल आदमी था। हम लोगों को ऐसा सदमा हो रहा है जैसे कोई अपना अजीज उठा जाता हो। पैसे की मुहब्बत छू तक नहीं गयी थी। हजारों रुपये माहवार लाते थे और सब का सब अमलों के हाथों में रख देते थे। रोजाना शराब मिलती जाय बस, और कोई हवस न थी। किसी मातहत से गलती हो जाय, पर कभी शिकायत न करते थे, बल्कि सारा इलजाम अपने सर ले लेते थे। क्या मजाल कि कोई हाकिम उनके मातहतों को तिर्छी निगाह से भी देख सके, सीना-सिपर हो जाते थे। मातहतों की शादी और गमी में इस तरह शरीक होते थे, जैसे कोई अपना अज़ीज हो। कई कानिस्टेबिलों की लड़कियों की शादियाँ अपने खर्च से करा दीं। उनके लड़कों की तालीम की फीस अपने पास से देते थे, अपनी सख्ती के लिए सारे इलाके में बदनाम थे। सारा इलाका उनका दुश्मन था, मगर थानेवाले चैन करते थे। हम गरीबों को ऐसा गरीब-परवर और हमदर्द अफसर न मिलेगा।